'कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास गलतियों का इतिहास है।' ये शब्द किसी
दक्षिणीपंथी के नहीं वरन् प्रख्यात् वामपंथी राहुल सांकृत्यायन के हैं। जो
वामपंथ को ठीक से नहीं जानते उन्हें आश्चर्य होता है कि अमुक मुद्दे पर
वामपंथ ने ऐसा स्टैण्ड क्यों लिया? लेकिन जो वामपंथ का इतिहास थोड़े भी ठीक
ढंग से जानते हैं उन्हें तनिक भी आश्चर्य नहीं होता। केवल सहजबोध से भारतीय
वामपंथ के स्टैण्ड की भविष्यवाणी की जा सकती है। यह बात कला, साहित्य और
राजनीति तीनों के बारे में उतनी ही सच है। बस, राष्ट्रविरोध और
हिन्दू-विरोध यही दोनों ऐसे प्रतिमान हैं जिन पर वामपंथ के सारे निर्णय और
स्टैण्ड निर्भर करते हैं। कम-से-कम कम्युनिस्ट पार्टी का अब तक का इतिहास
इसका गवाह है। आगे सद्बुध्दि आ जाए तो बात कुछ और है, लेकिन इसकी संभावना
नहीं दिखती। लेकिन प्रश्न उठता है इसके कारण क्या हैं? वस्तुत: इसके कारण
कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में ही निहित हैं। जिस तरह भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी आदि दल हैं उस तरह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
नहीं है। यह 'भारत की कम्युनिस्ट पार्टी' (Communist Party of India) है।
इसका मतलब है कि यह कम्युनिस्ट पार्टी की भारत स्थित शाखा है। अत: इसके
निर्णय स्वतंत्र हो ही नहीं सकते। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को
अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी का 30 दिसम्बर 1927 को लिखा गया गुप्त
पत्र इसका प्रमाण है - ''कम्युनिस्ट पार्टी को असंदिग्ध रूप से कम्युनिस्ट
इण्टरनेशनल का एक अंग होना चाहिए, अन्यथा उसे अपने आप को कम्युनिस्ट कहने
का अधिकार भी नहीं है। जिन लोगों को विश्व भर में निरन्तर संघर्ष करनेवाली
एक संस्था के इस संगठन-सिध्दांत में विदेशी नियंत्रण की बू आती है, वे
कम्युनिस्ट नहीं हैं।'' (एम.आर. मसानी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, पृ.
333)
लेकिन, कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल का अंग होते हुए भी रूस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने निर्णय स्वतंत्र रखे। और तमाम किसान मजदूरों के आन्दोलनों से सम्बध्द होते हुए भी राष्ट्रवाद का समर्थन किया। चीन और रूस दोनों में मगर आपसी तनातनी बनी रही, तो इसके पीछे यही कारण है। इन दोनों देशों का राष्ट्रवाद कहीं-न-कहीं साम्राज्यवाद की ओर पर्यवसित होता है, पर दोनों में से किसी देश की कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया, राष्ट्र-राज्य का विरोध तो और बात है। कम्युनिस्ट सोवियत संघ और चीनी गणतंत्र का संविधान इसके प्रमाण हैं। सोवियत संघ के 1977 का अनुच्छेद 62 स्पष्ट कहता है - ''रूस के प्रत्येक नागरिक का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह समाजवादी मातृभूमि की रक्षा करे। मातृभूमि के द्रोह से अधिक गंभीर कोई अपराध नहीं है।''
लेकिन, कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल का अंग होते हुए भी रूस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने निर्णय स्वतंत्र रखे। और तमाम किसान मजदूरों के आन्दोलनों से सम्बध्द होते हुए भी राष्ट्रवाद का समर्थन किया। चीन और रूस दोनों में मगर आपसी तनातनी बनी रही, तो इसके पीछे यही कारण है। इन दोनों देशों का राष्ट्रवाद कहीं-न-कहीं साम्राज्यवाद की ओर पर्यवसित होता है, पर दोनों में से किसी देश की कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया, राष्ट्र-राज्य का विरोध तो और बात है। कम्युनिस्ट सोवियत संघ और चीनी गणतंत्र का संविधान इसके प्रमाण हैं। सोवियत संघ के 1977 का अनुच्छेद 62 स्पष्ट कहता है - ''रूस के प्रत्येक नागरिक का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह समाजवादी मातृभूमि की रक्षा करे। मातृभूमि के द्रोह से अधिक गंभीर कोई अपराध नहीं है।''
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