मुझे इस संदर्भ में दो उपाय सुझते है. एक मतलब मूलभूत, आधारभूत ऐसा जो तत्त्व या तत्त्वज्ञान है, उसका बार-बार स्मरण करा दिया जाना चाहिए. भगवद्गीता ने इसे ही ‘अधिष्ठान’ कहा है. किसी भी कार्य की सिद्धी के लिए यह ‘अधिष्ठान’ नितांत आवश्यक है. फिर आता है दूसरा घटक. गीता ने उसे ‘कर्ता’ कहा है. कर्ता मतलब कार्यकर्ता. उसके बाद आते है साधन (करण) और कार्यक्रम (विविधाश्च चेष्टा:). हमारा अधिष्ठान है ‘हिंदुत्व’. मतलब सांस्कृतिक राष्ट्रभाव. उसका यहॉं विस्तार करने का कारण नहीं. लेकिन हर किसी को हर क्षण प्रतीत होना चाहिए, कभी भी विस्मरण नहीं होना चाहिए कि, ‘हिंदुत्व’ में कोई संकुचितता नहीं, सांप्रदायिकता नहीं. सर्वसमावेशकता है. इसलिए यह ध्यान में लेना चाहिए और हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि, ‘हिंदुत्व’ की राह अपनाई तो भाषीक, जातीय, प्रांतीय संकुचित अस्मिता पीछे छूट जाएगी. फिर जनगणना में जाति का अंतर्भाव करने का विचार स्वीकृत नहीं होगा. संस्कृति या सांस्कृतिक व्यवस्था कहने पर एक विशिष्ट मूल्य-व्यवस्था (Value-system) होती है. उसकी मुहर कार्यकर्ताओं की मन-बुद्धि पर स्थायी रूप में अंकित होनी चाहिए. उस मुहर से अंकित हुआ कर्ता मतलब कार्यकर्ता. फिर वे मूल्यनिष्ठ साधन इकट्ठा करेंगे. उन मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए कार्यक्रम की रचना भी करेंगे. मूल्यनिष्ठ जीना होगा तो उसके लिए जो किमत देनी होती है, वे वह देंगे. आवश्यक किमत देने की तैयारी और हिंमत होगी तो ही कोई मूल्य प्रस्तापित होता है. ऐसी मूल्यनिष्ठा से ओत-प्रोत कार्यकर्ता ही अपनी संस्था का गौरव बढ़ाते है.
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